Greatest Women in Indian History

भारतीय इतिहास की 6 महान और शक्तिशाली महिलाएं! 


क्या आपने कभी सोचा है कि भारत के गौरवशाली इतिहास के पन्नों में वो कहानियां छुपी हैं, जिन्होंने न केवल भारत को बल्कि पूरी दुनिया को बदलकर रख दिया? और उन कहानियों में सबसे खास हैं  वो वीरांगनाएं, जिन्होंने हर बाधाओं को परास्त कर दुनिया के सामने अपनी ताकत और महानता की मिसाल पेश की।

भारतीय महिलाओं ने भारत के इतिहास को आकार देने में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हजारों महिलाओं ने अपने कर्म, व्यवहार, योगदान और बलिदान से पूरे विश्व में आदर्श प्रस्तुत किया है।

इन भारतीय महिलाओं ने हिंदू धर्म के साथ-साथ हमारी भारतीय संस्कृति समाज और सभ्यता को नया मोड़ दिया है। इन महिलाओं के योगदान को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता है।

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, जो रणभूमि में दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिया, या सावित्रीबाई फुले, जिन्होंने हर बंद दरवाजे को खोलकर शिक्षा की रोशनी फैलाई।

सरोजिनी नायडू की वो आवाज़, जो हर देशवासियों के दिलों में आज़ादी की लौ जलाती थी, और कल्पना चावला, जिन्होंने आसमान की हदों को भी पार कर दिखाया। इंदिरा गांधी, जिनकी मजबूत नेतृत्व ने भारत को नई दिशा दी, और मदर टेरेसा, जिनकी ममता और सेवा ने लाखों लोगों की जिंदगियां बदलीं।

ये महिलाएं केवल नाम नहीं हैं, ये हमारे इतिहास की आत्मा हैं। जिनके संघर्ष, हौसले और जीत की कहानियां न सिर्फ प्रेरणा देती हैं, बल्कि हमें यह भी सिखाती हैं कि सपनों को सच करने का जुनून कितना ताकतवर हो सकता है और जिंदगी में आने वाले किसी भी तरह के चुनौतियों से लड़ने में पीछे नहीं हटे।

तो चलिए, इन कहानियों को एक बार फिर से जीते हैं, उनके संघर्ष को महसूस करते हैं और उनकी महानता को सलाम करते हैं। यह सफर न केवल प्रेरणादायक होगा, बल्कि आपके दिल में गर्व और जोश की एक नई लहर जगा देगा।

1. अहिल्याबाई होलकर (Ahilyabai Holkar)

(31 मई 1725 – 13 अगस्त 1795), 

मराठा साम्राज्य की प्रसिद्ध महारानी 

अहिल्याबाई होलकर (Ahilyabai Holkar) मराठा साम्राज्य की महारानी प्रसिद्ध सूबेदार मल्हार राव होलकर के पुत्र खांडेराव होलकर की धर्मपत्नी थी। इनका जन्म 31 मई 1725 में ग्राम चौड़ी जामखेड़ अहमदनगर महाराष्ट्र में हुआ था। इन्होंने महेश्वर को अपनी राजधानी बना कर शासन किया। इनकी मृत्यु 13 अगस्त 1795 में 70 वर्ष की आयु में हुई थी।

शासन अवधि

अहिल्याबाई होलकर जी ने सन 1767 से 1795 तक 28 वर्षों से अधिक एक छत्र शासन किया। अहिल्याबाई होलकर जी ने सनातन धर्म संस्कृति को बढ़ाते हुए अपने राज्य की सीमाओं के बाहर भी सारे भारत में अलग अलग जगह कई तीर्थ स्थलों पर मंदिर बनवाये, काशी विश्वनाथ मंदिर में शिवलिंग की स्थापना की।

मंदिरों में विद्वानों की नियुक्ति की, जिससे सारे जगत में सनातन धर्म का प्रचार प्रसार व्याकप रूप से बना रहे एवम सभी की धर्म के प्रति आस्था गहरी होती रहे। इसी क्रम में जनमानस की सेवा का भाव लिए जनमानस जनता के लिए घाट कुआँ बावड़ियों का निर्माण करवाया। जगह जगह पर व्यापक रूप से भूखों के लिए अन्यक्षेत्र खोले, जिससे गरीब निर्धनों को भूखे पेट सोने की आवश्यकता न पड़े। ऐसी थी महारानी अहिल्याबाई होलकर जी। 

महारानी अहिल्याबाई होलकर जी के जीवन का छोटा सा परिचय 

महारानी अहिल्याबाई होलकर जी का जन्म एक छोटे से गाँव में हुआ था, जो महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में है। महारानी जी का विवाह लगभग 10 वर्ष की आयु में खांडेराव जी से हुआ था, जो कि बहुत ही चंचल एवम उग्र स्वभाव के थे।

महारानी अहिल्याबाई होलकर जी सिर्फ 29 वर्ष की थी, जब उनके पति का लोकगमन हुआ। उसके पश्चात बयालीस-तैंतालीस वर्ष की आयु में पुत्र मालेराव का देहान्त हो गया। जब अहिल्याबाई की आयु बासठ वर्ष के लगभग थी, दौहित्र नत्थू चल बसा। चार वर्ष पीछे दामाद यशवन्तराव फणसे न रहे और इनकी पुत्री मुक्ताबाई सती हो गई।

दूर के सम्बन्धी तुकोजीराव के पुत्र मल्हारराव पर उनका स्नेह था। महारानी सोचती थीं कि आगे चलकर यही शासन, व्यवस्था , न्याय की डोर सँभालेगा पर वह अन्त-अन्त तक उन्हें दुःख देता रहा। महारानी अहिल्याबाई होलकर आत्म-प्रतिष्ठा के झूठे मोह का त्याग करके सदा न्याय करने का प्रयत्न करती थी।

महारानी सदैव उसी परंपरा का निर्वहन करती रही, जिसमें उनके समकालीन पूना के न्यायाधीश रामशास्त्री थे और उनके पीछे झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई हुई। महारानी होलकर जी को अपने जीवनकाल में ही भारत भर की जनता इनके कार्यों, इनकी शासन व्यवस्था से इतनी प्रभावित थी कि इन्हें ‘देवी’ समझने और कहने लगी थी। 

अहिल्याबाई होलकर जी का देश मे विशेष स्थान

भारत में महारानी अहिल्‍याबाई होल्‍कर जी का नाम बहुत ही सम्‍मान के साथ लिया जाता है। महारानी जी के  बारे में अलग अलग राज्‍यों की पाठ्य पुस्‍तकों में अध्‍याय मौजूद हैं। चुकी महारानी अहिल्याबाई होलकर जी एक ऐसी महारानी थी, जो सदैव मानव सेवा, धर्म, सनातन संस्कृति परंपरा का निर्वहन करती थी।

इसलिये भारत सरकार तथा विभिन्‍न राज्‍यों की सरकारों ने उनकी प्रतिमाएँ बनवायी हैं और उनके नाम से कई कल्‍याणकारी योजनाएं भी चलाई जा रही हैं। इसी तरह एक योजना उत्तराखंड सरकार की ओर से भी चलाई जा रही है, जो अहिल्‍याबाई होल्‍कर को पूर्णं सम्‍मान देती है। इस योजना का नाम अहिल्‍याबाई होल्‍कर भेड़ बकरी विकास योजना है।

अहिल्‍याबाई होल्‍कर भेड़ बकरी पालन योजना के तहत उत्तराखणवड के बेरोजगार, बीपीएल राशनकार्ड धारकों, महिलाओं व आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को बकरी पालन यूनिट के निर्माण के लिये भारी अनुदान राशि प्रदान की जाती है। लगभग 1,00,000 रूपये की इस युनिट के निर्मांण के लिये सरकार की ओर से 91,770 रूपये सरकारी सहायता रूप में अहिल्‍याबाई होलकर के लाभार्थी को प्राप्‍त होते हैं।(श्रोत – विकिपीडिआ)

2. आनंदीबाई जोशी

Born: 31 March 1865, Kalyan
Died: 26 February 1887 (age 21 years), Pune

आनंदीबाई जोशी (31 मार्च 1865-01 फ़रवरी 1887) पहली भारतीय महिला थी, जिन्होंने डॉक्टरी की डिग्री ली थी। 31 मार्च 1865 में जन्मी आनंदीबाई जोशी उस दौर में विदेश जाकर डॉक्टरी की डिग्री हासिल कीं। जिस समय में महिलाओं की प्रारंभिक शिक्षा ही बहुत मुश्किल थी, उस समय में आनंदीबाई डॉक्टर की पढ़ाई कीं और प्रथम भारतीय महिला डॉक्टर बनीं। उनकी यह उपलब्धि उस समय महिलाओं के लिए एक मिसाल थी।

आनंदीबाई जोशी का विवाह 9 साल की उम्र में उनसे करीब 20 साल बड़े गोपालराव से कर दी गई। 14 साल की उम्र में वह मां बन गई और उनकी एकमात्र संतान की मृत्यु 10 दिनों बाद ही जरुरी स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव के कारण हो गई।

इस बात से उन्हें बहुत आघात लगा और तभी उन्होंने प्रण लिया कि वह एक दिन डॉक्टर बनेंगी और जरुरी स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध कराएंगी। इस कार्य में उनके पति गोपाल राव ने भी उनका भरपूर सहयोग दिया और उनका हौसला बढ़ाया।

आनंदीबाई जोशी का जन्म पुणे के एक जमींदार परिवार में 31 मार्च 1865 को हुआ। बचपन में उनके माता-पिता ने उनका नाम यमुना रखा था। शादी के बाद ससुराल वाले उन्हें आनंदी बुलाने लगे। ब्रिटिश शासकों ने महाराष्ट्र में जमींदारी प्रथा को खत्म कर दिया था, जिसके बाद आनंदी के परिवार की वित्तीय स्थिति खराब हो गई।

ऐसे में उनके पिता ने आनंदी की शादी मात्र 9 साल की उम्र में उनसे उम्र में 20 साल बड़े गोपालराव से कर दी, जिनके पहले पत्नी की मौत हो चुकी थी। 14 वर्ष की आयु में मां बनकर बच्चे को खो देने का दर्द आनंदीबाई ने सहा परंतु इसी घटना के बाद उन्होंने डॉक्टर बनने का दृढ़ निश्चय किया। 

1880 में गोपाल राव ने एक मशहूर अमेरिकी मिशनरी को पत्र लिखकर अमेरिका में चिकित्सा की पढ़ाई करने की पूरी जानकारी एकत्र की। उस वक्त पर उनके पति के अलावा घरवाले और समाज उनके इस निर्णय से सहमत नहीं थे। लोगों ने उन पर अवांछित टिप्पणियां की, उनके घर पर पत्थर और गोबर फेंके। यहां तक ​​कि उस डाकघर पर भी हंगामा किया, जहां गोपालराव काम करते थे, लेकिन वह अपने निर्णय पर दृढ़ता के साथ खड़ी रहीं। आनंदीबाई की जिद और पति के साथ ने उनको लक्ष्य तक पहुंचने में मदद की। 

परंतु आनंदीबाई के इस कदम के प्रति हिंदू समाज में बहुत विरोध की भावना थी। वे नहीं चाहतें थे कि उनके देश का कोई व्यक्ति विदेश जाकर पढ़े, कुछ इसाई समाज ने उनका समर्थन किया परंतु उनकी इच्छा इनका धर्म परिवर्तित करवाने की थी। अपने फैसले को लेकर हिंदू समाज में विरोध को देखते हुए आनंदीबाई ने श्रीरामपुर कॉलेज में अपना पक्ष अन्य लोगों के समक्ष रखा।

उन्होंने कहा – “मैं अमेरिका जा रही हूं, क्योंकि मैं चिकित्सा की पढ़ाई करना चाहती हूं। स्थानीय और यूरोपीय महिलाएं, पुरुष डॉक्टर से आपात स्थिति में भी इलाज कराने में झिझकती हैं। मेरा विनम्र विचार यही है कि मैं भारत में महिला डॉक्टर की बढ़ती जरूरतों को देखते हुए, खुद को इस क्षेत्र के योग्य बनाकर उनकी सेवा करूं।”

उन्होनें अपने अमेरिका जाने और मेडिकल की डिग्री प्राप्त करने के संकल्प को लोगो के मध्य खुलकर रखा और लोगो को महिला डॉक्टर की जरुरत के बारे में समझाया। अपने इस संबोधन में उन्होंने यह भी पक्ष रखा कि वे और उनका परिवार भविष्य में कभी भी इसाई धर्म स्वीकार नहीं करेगा और वापस आकर भारत में भी महिलाओं के लिए मेडिकल कॉलेज खोलेंगी। 

उनके इस प्रयास से लोग प्रभावित हुए और देश भर से लोग उनके समर्थन में आगे आये। इस कार्य के लिए उन्होंने अपने सारे गहने बेच दिए। कुछ लोगों ने आनंदीबाई के इस कदम में उनका साथ देते हुए सहायता के लिए 200 रुपये की मदद की। 1883 में पेंसिल्वेनिया के महिला मेडिकल कॉलेज में आनंदी ने दाखिला लिया।

उन्होनें मात्र 18 वर्ष की उम्र में मेडिकल कॉलेज में दाखिला लिया और 11 मार्च 1886 में अपनी शिक्षा पूर्ण कर एम डी (डॉक्टर ऑफ़ मेडिसिन) की उपाधि हासिल की। वह पहली भारतीय महिला थीं, जिसे यह उपाधि मिली। उनकी इस सफलता पर क्वीन विक्टोरिया ने भी उन्हें बधाई दी। 

डिग्री पूरी होने के बाद अपने लक्ष्य अनुसार आनंदीबाई भारत वापस आईं और सर्वप्रथम कोल्हापुर में अपनी सेवाएं दी। वहां उन्होंने अल्बर्ट एडवर्ड हॉस्पिटल में महिला विभाग का काम संभाला। यह भारत में महिलाओं के लिए पहला अवसर था, जब उनके इलाज के लिए कोई महिला चिकित्सक उपलब्ध थी, परंतु यहां उनकी तबीयत लगातार बिगड़ती चली गई।

डाॅक्टरी की प्रैक्टिस के दौरान वह टीबी की बीमारी की शिकार हो गईं। 26 फरवरी 1887 में महज 22 साल की उम्र में ट्यूबरकुलोसिस की चपेट में आने के कारण आनंदीबाई का निधन हो गया।

आनंदीबाई के जीवन पर आधारित किताबें 

इनकी मृत्यु के तुरंत बाद अमेरिका के राइटर कैरलाइन वेल्स हेअले डाल ने इनके जीवन पर एक किताब लिखी और इनके जीवन और उपलब्धियों से अन्य लोगों को परिचित करवाया। 

इसके बाद मराठी लेखक डॉ अंजली कीर्तने ने डॉ आनंदिबाई जोशी के जीवन पर रिसर्च की और डॉ  आनंदीबाई जोशी काल अणि कर्तुत्व (डॉ आनंदीबाई जोशी, उनके समय और उपलब्धियां) नामक एक मराठी पुस्तक लिखी।  इस पुस्तक में डॉ आनंदिबाई जोशी की दुर्लभ तस्वीरों को शामिल किया गया। 

3. सुचिता कृपलानी

Born: 25 June 1908, Ambala 
Died: 1 December 1974, नई दिल्ली 

भारत के इतिहास में समय समय पर देश की वीरांगनाओं ने अपना योगदान दिया है। कुछ वीरांगनाएं ऐसी थीं, जिनसे अंग्रेज शासक और मुगल शासक थर थर कांपते थे, जिनमें रानी लक्ष्मीबाई, झलकारी बाई, तारा बाई भोसले, दुर्गावती बोहरा, रानी कर्णावती प्रमुख नाम हैं। भारतीय राजनीति में भी महिलाओं ने हमेशा बढ़-चढ़कर भाग लिया है।

सरोजिनी नायडू, सुचिता कृपलानी, इंदिरा गांधी जैसी महिला राजनीतिज्ञों ने देश का गौरव बढ़ाया है। हालांकि आज़ादी के दौर में महिलाएं राजनीति में बड़ी जिम्मेदारियां नहीं संभालती थीं, ऐसे में उस दौर में सुचिता कृपलानी आजाद भारत की प्रथम महिला मुख्यमंत्री के रूप में सामने आईं।

आजादी की जंग में भी सुचेता स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उभरकर सामने आईं थीं। इतना ही नहीं जब देश का संविधान बनाया गया। तब उनके लिए अलग सभा का गठन किया गया। उस दौरान सुचेता ने महिलाओं का प्रतिनिधित्व किया। उन्होंने भारत के संविधान में महिलाओं के अधिकारों को और मजबूत बनाया। यही वजह है कि उन्हें मुख्यमंत्री बनने के लिए प्रथम दावेदारों में से एक माना गया।

सुचेता कृपलानी का जन्म 25 जून 1908 को हरियाणा के अंबाला शहर में सम्पन्न बंगाली ब्राह्मण परिवार में हुआ। सुचेता बंगाली परिवार से थीं। उनके पिता नाम एस.एन मजूमदार ब्रिटिश सरकार के अधीन डॉक्टर थे। वे प्रसिद्ध गांधीवादी नेता आचार्य कृपलानी की पत्नी थीं। उनकी प्रारंभिक शिक्षा कई स्कूलों में पूरी हुई क्योंकि हर दो-तीन वर्ष में पिता का तबादला होता रहता था।

आगे की पढ़ाई के लिए उन्हें दिल्ली भेज दिया गया। दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफेंस कॉलेज से उन्होंने इतिहास विषय में स्नातक की डिग्री हासिल की।

कॉलेज से निकलने के बाद ही 21 वर्ष की उम्र में सुचेता कृपलानी स्वतंत्रता संग्राम में कूदना चाहती थीं पर दुर्भाग्यवश 1929 में उनके पिता और बहन की मृत्यु होने की वजह से परिवार को संभालने की जिम्मदारी सुचेता के कंधो पर आ गयी। इसके बाद, वे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में संवैधानिक इतिहास की व्याख्याता बन गईं। 

सन 1936 में अठाइस साल की उम्र में उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुख्य नेता जेबी कृपलानी से विवाह किया। सुचेता के इस कदम का उनके घर वालों के साथ महात्मा गांधी ने भी विरोध किया था। जेबी कृपलानी सिन्धी थे और उम्र में सुचेता कृपलानी से बीस साल बड़े थे। इसके अलावा गाँधीजी को डर था कि इस विवाह के कारण आचार्य जो उनके “दाहिने हाथ” थे, कहीं स्वतंत्रता संग्राम से पीछे न हट जाँय। आचार्य कृपलानी का साथ पाकर सुचेता पूरी तरह से राजनीति में कूद पड़ीं। 

आजादी की जंग में सुचेता कृपलानी ने अहम भूमिका निभाई। उस दौरान ही वो राजनीति में सक्रिय हुईं। साल 1952 में सुचेता कृपलानी लोकसभा की सदस्य के रूप में निर्वाचित हुईं।

साल 1957 में दिल्ली सरकार की विधानसभा का सदस्य बनाया गया, जहां उन्हें लघु उद्योग मंत्रालय दिया गया। साल 1962 में सुचेता कानपुर से विधानसभा सदस्य चुनी गईं, इसी के साथ साल 1963 में देश को उसकी पहली महिला मुख्यमंत्री मंत्री मिली।

सन 1971 में उन्होने राजनीति से संन्यास ले लिया। राजनीति से सन्यास लेने के बाद वे अपने पति के साथ दिल्ली में बस गयीं। निःसन्तान होने के कारण उन्होंने अपना सारा धन और संसाधन लोक कल्याण समिति को दान कर दिया। इसी समय, उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘एन अनफिनिश्ड ऑटोबायोग्राफी’ लिखनी शुरू की, जो तीन भागों में में प्रकाशित हुई। धीरे-धीरे उनका स्वास्थ्य गिरता गया और 1 दिसम्बर 1974 को हृदय गति रूक जाने से उनका निधन हो गया। 

4. सावित्रीबाई फुले

Born: 3 January1831, Maharashtra
Died: 10 March 1897 

सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी, 1831 को महाराष्ट्र के नायगांव में हुआ था। इनके पिता का नाम खन्दोजी नेवसे और माता का नाम लक्ष्मी था। सावित्रीबाई फुले का विवाह 1840 में ज्योतिबा फुले से हुआ था।

सावित्रीबाई का विवाह बहुत ही छोटी उम्र में महज नौ साल पर वर्ष 1940 में ज्योतिराव फुले से हो गया। शादी के बाद वह जल्द ही अपने पति के साथ पुणे आ गईं। विवाह के समय वह पढ़ी-लिखी नहीं थीं। लेकिन पढ़ाई में उनका मन बहुत लगता था। उनके पढ़ने और सीखने की लगन से प्रभावित होकर उनके पति ने उन्हें आगे पढ़ना और लिखना सिखाया।

सावित्रीबाई ने अहमदनगर और पुणे में शिक्षक बनने का प्रशिक्षण लिया और एक योग्य शिक्षिका बनीं।इन्हें भारत में पहली नारीवादी, एक अग्रणी शिक्षिका और एक जाति-विरोधी भेदभाव कार्यकर्ता के रूप में गिना जाता है। ये भारत की प्रथम महिला शिक्षिका, समाज सुधारिका एवं मराठी कवियत्री थीं। इन्होंने अपने पति ज्योतिराव गोविंदराव फुले के साथ मिलकर स्त्री अधिकारों एवं शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किए। उन्हें आधुनिक मराठी काव्य का अग्रदूत माना जाता है। 1852 में उन्होंने बालिकाओं के लिए एक विद्यालय की स्थापना की।

सावित्रीबाई फुले  ने अपना जीवन एक लक्ष्य महिलाओं के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया था। इस राह में उन्हें बहुत सी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। जब वे स्कूल जाती थीं, तो विरोधी लोग उनपर पत्थर मारते थे। उन पर गंदगी फेंक देते थे। आज से 191 साल पहले बालिकाओं के लिये जब स्कूल खोलना पाप का काम माना जाता था, तब उन्होंने खुद पढाई की और अन्य महिलाओं को भी शिक्षित करने का बीड़ा उठाया। 

सावित्रीबाई पूरे देश की महानायिका हैं। हर बिरादरी और धर्म के लिये उन्होंने काम किया। जब सावित्रीबाई कन्याओं को पढ़ाने के लिए जाती थीं तो रास्ते में लोग उन पर गंदगी, कीचड़, गोबर, विष्ठा तक फेंका करते थे। सावित्रीबाई एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थीं और स्कूल पहुँच कर गंदी कर दी गई साड़ी बदल लेती थीं। अपने पथ पर चलते रहने की प्रेरणा बहुत अच्छे से देती हैं।

सावित्रीबाई ने 19वीं सदी में छुआ-छूत, सतीप्रथा, बाल-विवाह और विधवा विवाह जैसी कुरीतियों के विरुद्ध अपने पति के साथ मिलकर काम किया। उनकी जिंदगी से जुडी एक घटना ये भी थी कि उन्होंने आत्महत्या करने जाती हुई एक महिला काशीबाई की अपने घर में डिलीवरी करवा कर उसके बच्चे यशवंत को अपने दत्तक पुत्र के रूप में गोद लिया। दत्तक पुत्र यशवंत राव को पाल-पोसकर उन्होंने उसे डॉक्टर बनाया।

इन्हीं सब सेवा कार्य में रमी 10 मार्च 1897 को एक प्लेग के छूत से प्रभावित बच्चे की सेवा करने के कारण इनको भी छूत लग गया और इसी कारण से उनका निधन हो गया। प्लेग महामारी में सावित्रीबाई प्लेग के मरीजों की सेवा करती थीं। 

5. सरोजिनी नायडू 

जन्म- 13 फ़रवरी, 1879, हैदराबाद; 
मृत्यु- 2 मार्च, 1949, लखनऊ 

नाइटिंगेल ऑफ इंडिया कहीं जाने वाली सरोजिनी नायडू की आज पुण्य तिथि है।

सरोजिनी नायडू का जन्म 13 फरवरी, 1879 को हैदराबाद, ब्रिटिश भारत के राज्य में हुआ था। वह एक भारतीय राजनीतिक कार्यकर्ता और कवि थीं। सरोजिनी भारत की स्वतंत्रता के बाद संयुक्त प्रांत की पहली राज्यपाल थीं। उन्होंने ब्रिटिश राज के खिलाफ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष बनने वाली और किसी राज्य की राज्यपाल नियुक्त होने वाली पहली भारतीय महिला थीं।

सरोजिनी आठ भाई-बहनों में सबसे बड़ी थीं। उनके पिता अघोरनाथ चट्टोपाध्याय एक बंगाली ब्राह्मण और हैदराबाद के निज़ाम कॉलेज के प्रिंसिपल थे, जबकि उनकी मां एक कवियत्री थी, जो कि बांग्ला भाषा में लिखती थी। उनके भाई वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय एक क्रांतिकारी थे, और दूसरे भाई हरिंद्रनाथ एक कवि, नाटककार और एक अभिनेता थे। उनके परिवार को हैदराबाद में बहुत सम्मान प्राप्त था।

सरोजिनी पढ़ने-लिखने में बेहद होशियार थीं। बहुत कम उम्र में ही उन्हें लेखन में गहरी रुचि हो गई थी। सरोजिनी, जब महज 12 साल की हुईं थीं, तभी उन्होंने फ़ारसी में Mahr Muneer नामक नाटक लिखा था। इसके बाद वे आगे की पढ़ाई करने के लिए वह विदेश चली गई थीं।

जब वे भारत लौटी थीं तो भारत में प्लेग की बीमारी फैली हुई थी। इस दौरान, उन्होंने बीमारी से प्रभावित लोगों के साथ लगन से काम किया। 19 साल की उम्र में सरोजिनी नायडू ने पेशे से डॉक्टर डॉ. गोविंदराजुलु नायडू से शादी की थी। साल 1925 में कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष के रूप में नेतृत्व संभालने वाली सरोजिनी नायडू पहली महिला थीं।

सरोजिनी ने नमक सत्याग्रह में भाग लिया था, जो साल 1930 में अंग्रेजों द्वारा लगाए गए नमक कर के खिलाफ महात्मा गांधी द्वारा शुरू किया गया एक आंदोलन था। सरोजिनी सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन का नेतृत्व करने वाली प्रमुख हस्तियों में से एक थीं।

इस दौरान उन्हें ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा बार-बार गिरफ़्तारी का सामना करना पड़ा और यहाँ तक कि उन्हें 21 महीने (1 वर्ष 9 महीने) से अधिक समय जेल में भी बिताना पड़ा। उन्हें 1925 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष नियुक्त किया गया और आजादी के बाद सरोजिनी नायडू को साल 1947 में पहली महिला राज्यपाल नामित किया गया था। वह दो साल तक इस पद पर रहीं थीं।

एक कवि के रूप में उनके काम ने उनकी कविता के रंग, कल्पना और गीतात्मक गुणवत्ता के कारण उन्हें महात्मा गांधी द्वारा ‘भारत की कोकिला’ या ‘भारत कोकिला’ की उपाधि दी।

नायडू की कविताओं में बच्चों की कविताएँ और देशभक्ति, रोमांस और त्रासदी सहित अधिक गंभीर विषयों पर लिखी गई कविताएँ शामिल हैं। 1912 में प्रकाशित, ‘इन द बाज़ार्स ऑफ़ हैदराबाद’ उनकी सबसे लोकप्रिय कविताओं में से एक है। 2 मार्च, 1949 को लखनऊ के गवर्नमेंट हाउस में दिल का दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हो गई।

6. कल्पना चावला

Born: 17 March 1962, Karnal
Died: 1 February 2003 (age 40 years), Texas, United States

सर्वविदित है कि कल्पना चावला भारतीय मूल की एक अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री थीं। कल्पना चावला, एक भारतीय अमरीकी अन्तरिक्ष यात्री और अन्तरिक्ष शटल मिशन विशेषज्ञ थी और अन्तरिक्ष में जाने वाली प्रथम भारतीय महिला थी। वे कोलंबिया अन्तरिक्ष यान आपदा में मारे गए सात यात्री दल सदस्यों में से एक थीं।

कल्पना चावला को किसी भी परिचय की आवश्यकता नहीं है। यह एक ऐसा नाम है, जो सिर्फ भारत देश में ही नहीं अपितु पूरी दुनिया पर अपने नाम का डंका बजा चुका है। यह एक ऐसा नाम है, जो हर लड़की के लिए प्रेरणा रही है, जबकि वह अब इस दुनिया में नहीं हैं।

कल्पना चावला पहली भारतीय महिला अंतरिक्ष यात्री थीं। कल्पना चावला के पास हवाई जहाज और ग्लाइडर रेटिंग के साथ ही उड़ान प्रशिक्षक का लाइसेंस, एकल और बहू इंजन भूमि और सीप्लेन के लिए वाणिज्यिक पायलट का लाइसेंस था। इन्हें एरोबैटिक्स और टेलव्हील हवाई जहाज उड़ाने में मजा आता था। 

कल्पना चावला का जन्म 17 मार्च 1962 को हरियाणा के करनाल में हुआ था उनके पिताजी बनारसी लाल चावला एक व्यवसाई थे और माता संयोगिता साधारण गृहणी थीं। उड़ने का शौक रखने वाली कल्पना चावला बचपन से ही बहुत ही साहसी थी। 13 साल की उम्र में उन्होंने उड़ान सीखने की इच्छा व्यक्त की थी।

उनका बचपन अन्य लड़कियों से बिल्कुल अलग था। अन्य लड़कियां जिस उम्र में बार्बी डॉल से खेलने और  सजने सवरने का शौख रखती हैं, उस उमर में कल्पना चावला हवाई जहाजों की स्केचिंग और पेंटिंग बनाती थी। 

कल्पना चावला की प्रारंभिक शिक्षा टैगोर पब्लिक स्कूल करनाल में हुई थी आगे की शिक्षा व मानिक अभियांत्रिकी में पंजाब इंजीनियरिंग कॉलेज चंडीगढ़ में हुई। उन्हें 1982 में अभियांत्रिकी स्नातक की उपाधि मिली। वे संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए 1982 में चली गई और 1984 में वैमानिक अभियांत्रिकी में विज्ञान स्नातक की उपाधि टेक्सास विश्वविद्यालय आर्लिंगटन से प्राप्त की। 1986 में कल्पना चावला दूसरी विज्ञान में स्नातक की उपाधि पाए और 1988 में कोलोराडो विश्वविद्यालय बोल्डर से वैज्ञानिक अभियंत्रिकी में विद्या वाचस्पति की उपाधि पाई। 

कल्पना चावला मार्च 1995 में नासा के अंतरिक्ष यात्री कोर में शामिल हुई और वह 1997 में अपनी पहली उड़ान के लिए चुनी गई थी उनका पहला अंतरिक्ष मिशन 19 नवंबर 1997 को अंतरिक्ष यात्री दल के हिस्से के रूप में अंतरिक्ष शटल कोलंबिया की उड़ान से शुरू हुआ।

कल्पना चावला अंतरिक्ष में उड़ने वाली प्रथम भारत में जन्मे महिला थी और अंतरिक्ष में उड़ान भरने वाली भारतीय मूल की दूसरी व्यक्ति थी प्रथम व्यक्ति राकेश शर्मा थे जिन्होंने 1984 में सोवियत अंतरिक्ष यान में एक उड़ान भरी थीं। 2000 में कल्पना चावला को sts-107 में अपनी दूसरी उड़ान के लिए कर्मचारी के तौर पर चुना गया।

अभियान लगातार पीछे सरकता रहा क्योंकि विभिन्न कार्यों के नियोजित समय में टकराव होता रहा और कुछ तकनीकी समस्याएं भी आईं। 16 जनवरी 2003 को कल्पना चावला ने अंततः कोलंबिया पर चढ़कर sts-107 मिशन का आरंभ किया। उनकी जिम्मेदारियों में शामिल थे स्पेस हैब/बल्ले बल्ले/ फीस्टार लघु गुरुत्व प्रयोग, जिसके लिए कर्मचारी दल ने 80 प्रयोग किए। जिसके जरिए पृथ्वी व अंतरिक्ष विज्ञान उन्नत तकनीक विकास व अंतरिक्ष यात्री स्वास्थ्य व सुरक्षा का अध्ययन हुआ।

कल्पना चावला की दूसरी अंतरिक्ष यात्रा ही उनकी अंतिम यात्रा हो गई सभी तरह के अनुसंधान तथा विचार विमर्श के उपरांत वापसी के समय पृथ्वी के वायुमंडल में अंतरिक्ष यान के प्रवेश के समय जिस तरह की भयंकर घटना घटी अब वह इतिहास बन चुकी है नासा तथा विश्व के लिए यह एक दर्दनाक घटना थी।

1 फरवरी 2003 को कोलंबिया अंतरिक्ष यान पृथ्वी की कक्षा में प्रवेश करते ही टूट कर बिखर गया देखते ही देखते अंतरिक्ष यान और उसमें सवार 7 यात्रियों के अवशेष टैक्सास नामक शहर पर बरसने लगे और सफल कहलाया जानेवाला अभियान दर्दनाक सत्य बन गया यह अंतरिक्ष यात्री तो सितारों की दुनिया में विलीन हो गए, लेकिन उनके अनुसंधान का लाभ पूरे विश्व को अवश्य मिला।

कल्पना चावला कहती थी कि मैं अंतरिक्ष के लिए ही बनी हूं प्रत्येक पल अंतरिक्ष के लिए ही बिताया है और इसी के लिए ही मरूंगी। अंततः 1 फरवरी 2003 को उनकी यह बात सत्य हो गई।

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